Summary
Just as with full speed, the moths enter into the flaming fire for their own destruction, in the same manner the worlds also do enter, for their own destruction with full speed, into the mouths of Yours.
पदच्छेदः
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यथा | यथा (अव्ययः) |
प्रदीप्तं | प्रदीप्त (√प्र-दीप् + क्त, २.१) |
ज्वलनं | ज्वलन (२.१) |
पतंगा | पतंग (१.३) |
विशन्ति | विशन्ति (√विश् लट् प्र.पु. बहु.) |
नाशाय | नाश (४.१) |
समृद्धवेगाः | समृद्ध (√सम्-ऋध् + क्त)–वेग (१.३) |
तथैव | तथा (अव्ययः)–एव (अव्ययः) |
नाशाय | नाश (४.१) |
विशन्ति | विशन्ति (√विश् लट् प्र.पु. बहु.) |
लोकास्तवापि | लोक (१.३)–त्वद् (६.१)–अपि (अव्ययः) |
वक्त्राणि | वक्त्र (२.३) |
समृद्धवेगाः | समृद्ध (√सम्-ऋध् + क्त)–वेग (१.३) |
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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य | था | प्र | दी | प्तं | ज्व | ल | नं | प | तं | गा |
वि | श | न्ति | ना | शा | य | स | मृ | द्ध | वे | गाः |
त | थै | व | ना | शा | य | वि | श | न्ति | लो | का |
स्त | वा | पि | व | क्त्रा | णि | स | मृ | द्ध | वे | गाः |
ज | त | ज | ग | ग |