Summary
Arjuna said O Lord of sense-organs (Krsna) ! It is appropriate that the universe rejoices and feels exceedingly delighted by the high glory of yours; that in fear the demons fly on all directions; and that the hosts of the perfected ones bow down [to You].
पदच्छेदः
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स्थाने | स्थान (७.१) |
हृषीकेश | हृषीकेश (८.१) |
तव | त्वद् (६.१) |
प्रकीर्त्या | प्रकीर्ति (३.१) |
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते | जगन्त् (१.१)–प्रहृष्यति (√प्र-हृष् लट् प्र.पु. एक.)–अनुरज्यते (√अनु-रञ्ज् प्र.पु. एक.) |
च | च (अव्ययः) |
रक्षांसि | रक्षस् (१.३) |
भीतानि | भीत (√भी + क्त, १.३) |
दिशो | दिश् (२.३) |
द्रवन्ति | द्रवन्ति (√द्रु लट् प्र.पु. बहु.) |
सर्वे | सर्व (१.३) |
नमस्यन्ति | नमस्यन्ति (√नमस्य् लट् प्र.पु. बहु.) |
च | च (अव्ययः) |
सिद्धसंघाः | सिद्ध–संघ (१.३) |
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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स्था | ने | हृ | षी | के | श | त | व | प्र | की | र्त्या |
ज | ग | त्प्र | हृ | ष्य | त्य | नु | र | ज्य | ते | च |
र | क्षां | सि | भी | ता | नि | दि | शो | द्र | व | न्ति |
स | र्वे | न | म | स्य | न्ति | च | सि | द्ध | सं | घाः |