Summary
Who, by restraining properly the group of sense-organs have eanimity at all stages, and find pleasure in the welfare of all beings - they attain nothing but Me.
पदच्छेदः
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संनियम्येन्द्रियग्रामं | संनियम्य (√संनि-यम् + ल्यप्)–इन्द्रिय–ग्राम (२.१) |
सर्वत्र | सर्वत्र (अव्ययः) |
समबुद्धयः | सम–बुद्धि (१.३) |
छिन्नद्वैधा | छिन्न (√छिद् + क्त)–द्वैध (१.३) |
यतात्मानः | यत (√यम् + क्त)–आत्मन् (१.३) |
सर्वभूतहिते | सर्व–भूत–हित (७.१) |
रताः | रत (√रम् + क्त, १.३) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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सं | नि | य | म्ये | न्द्रि | य | ग्रा | मं |
स | र्व | त्र | स | म | बु | द्ध | यः |
ते | प्रा | प्नु | व | न्ति | मा | मे | व |
स | र्व | भू | त | हि | ते | र | ताः |