Summary
It remains undistinguished (common) in the distinguished [beings], and appears as if distinguished. It is to be known as the supporter of beings, and also as [their] swallower and orginator.
पदच्छेदः
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अविभक्तं | अविभक्त (१.१) |
च | च (अव्ययः) |
भूतेषु | भूत (७.३) |
विभक्तमिव | विभक्त (√वि-भज् + क्त, १.१)–इव (अव्ययः) |
च | च (अव्ययः) |
स्थितम् | स्थित (√स्था + क्त, १.१) |
भूतभर्तृ | भूत–भर्तृ (१.१) |
च | च (अव्ययः) |
तज्ज्ञेयं | तद् (१.१)–ज्ञेय (√ज्ञा + कृत्, १.१) |
ग्रसिष्णु | ग्रसिष्णु (१.१) |
प्रभविष्णु | प्रभविष्णु (१.१) |
च | च (अव्ययः) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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अ | वि | भ | क्तं | च | भू | ते | षु |
वि | भ | क्त | मि | व | च | स्थि | तम् |
भू | त | भ | र्तृ | च | त | ज्ज्ञे | यं |
ग्र | सि | ष्णु | प्र | भ | वि | ष्णु | च |