Summary
Whosoever, perceiving the Lord as abiding in all alike, does not harm the Self by the Self-he attains, on that account, the Supreme Goal.
पदच्छेदः
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समं | सम (२.१) |
पश्यन्हि | पश्यत् (√दृश् + शतृ, १.१)–हि (अव्ययः) |
सर्वत्र | सर्वत्र (अव्ययः) |
समवस्थितमीश्वरम् | समवस्थित (√समव-स्था + क्त, २.१)–ईश्वर (२.१) |
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो | अनेक–जन्मन्–संसिद्ध (√सम्-सिध् + क्त, १.१)–ततस् (अव्ययः) |
याति | याति (√या लट् प्र.पु. एक.) |
परां | पर (२.१) |
गतिम् | गति (२.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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स | मं | प | श्य | न्हि | स | र्व | त्र |
स | म | व | स्थि | त | मी | श्व | रम् |
न | हि | न | स्त्या | त्म | ना | त्मा | नं |
त | तो | या | ति | प | रां | ग | तिम् |