Summary
When the Perceiver (the Self) finds no agent other than the Strands, and realises That which is beyond the Strands, then he attains My state.
पदच्छेदः
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नान्यं | न (अव्ययः)–अन्य (२.१) |
गुणेभ्यः | गुण (५.३) |
कर्तारं | कर्तृ (२.१) |
यदा | यदा (अव्ययः) |
द्रष्टानुपश्यति | द्रष्टृ (१.१)–अनुपश्यति (√अनु-पश् लट् प्र.पु. एक.) |
गुणेभ्यश्च | गुण (५.३)–च (अव्ययः) |
परं | पर (२.१) |
वेत्ति | वेत्ति (√विद् लट् प्र.पु. एक.) |
मद्भावं | मद्–भाव (२.१) |
सो | तद् (१.१) |
ऽधिगच्छति | अधिगच्छति (√अधि-गम् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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ना | न्यं | गु | णे | भ्यः | क | र्ता | रं |
य | दा | द्र | ष्टा | नु | प | श्य | ति |
गु | णे | भ्य | श्च | प | रं | वे | त्ति |
म | द्भा | वं | सो | ऽधि | ग | च्छ | ति |