Summary
Whosoever serves Me alone with an unfailing devotion-Yoga, he, transcending these Strands, turns to be the Brahman.
पदच्छेदः
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मां | मद् (२.१) |
च | च (अव्ययः) |
यो | यद् (१.१) |
ऽव्यभिचारेण | अव्यभिचार (३.१) |
भक्तियोगेन | भक्ति–योग (३.१) |
सेवते | सेवते (√सेव् लट् प्र.पु. एक.) |
स | तद् (१.१) |
गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय | गुण (२.३)–समतीत्य (√समति-इ + ल्यप्)–एतद् (२.३)–ब्रह्मन्–भूय (४.१) |
कल्पते | कल्पते (√क्ᄆप् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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मां | च | यो | ऽव्य | भि | चा | रे | ण |
भ | क्ति | यो | गे | न | से | व | ते |
स | गु | णा | न्स | म | ती | त्यै | ता |
न्ब्र | ह्म | भू | या | य | क | ल्प | ते |