Summary
The exerting men of Yoga perceive Him dwelling in the Self. [But] the unintelligent men with their uncontrolled self do not perceive Him, even though they exert.
पदच्छेदः
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यतन्तो | यतत् (√यत् + शतृ, १.३) |
योगिनश्चैनं | योगिन् (१.३)–च (अव्ययः)–एनद् (२.१) |
पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् | पश्यन्ति (√दृश् लट् प्र.पु. बहु.)–आत्मन् (७.१)–अवस्थित (√अव-स्था + क्त, २.१) |
यतन्तो | यतत् (√यत् + शतृ, १.३) |
ऽप्यकृतात्मानो | अपि (अव्ययः)–अकृतात्मन् (१.३) |
नैनं | न (अव्ययः)–एनद् (२.१) |
पश्यन्त्यचेतसः | पश्यन्ति (√दृश् लट् प्र.पु. बहु.)–अचेतस् (१.३) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | त | न्तो | यो | गि | न | श्चै | नं |
प | श्य | न्त्या | त्म | न्य | व | स्थि | तम् |
य | त | न्तो | ऽप्य | कृ | ता | त्मा | नो |
नै | नं | प | श्य | न्त्य | चे | त | सः |