Summary
But the Highest Person, distinct [from both this] is spoken of as the Supreme Self, which, being the changeless Lord, sustains the triad of the world by entering into it.
पदच्छेदः
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उत्तमः | उत्तम (१.१) |
पुरुषस्त्वन्यः | पुरुष (१.१)–तु (अव्ययः)–अन्य (१.१) |
परमात्मेत्युदाहृतः | परमात्मन् (१.१)–इति (अव्ययः)–उदाहृत (√उदा-हृ + क्त, १.१) |
यो | यद् (१.१) |
लोकत्रयमाविश्य | लोकत्रय (२.१)–आविश्य (√आ-विश् + ल्यप्) |
बिभर्त्यव्यय | बिभर्ति (√भृ लट् प्र.पु. एक.)–अव्यय (१.१) |
ईश्वरः | ईश्वर (१.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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उ | त्त | मः | पु | रु | ष | स्त्व | न्यः |
प | र | मा | त्मे | त्यु | दा | हृ | तः |
यो | लो | क | त्र | य | मा | वि | श्य |
बि | भ | र्त्य | व्य | य | ई | श्व | रः |