Summary
The nature of this is not perceived in that manner, nor its end, nor its beginning and nor its centre (the middle). Cutting this holy Fig-tree-with its firmly and variedly grown roots-by means of the sharp (or strong) exe of non-attachment;
पदच्छेदः
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न | न (अव्ययः) |
रूपमस्येह | रूप (१.१)–इदम् (६.१)–इह (अव्ययः) |
तथोपलभ्यते | तथा (अव्ययः)–उपलभ्यते (√उप-लभ् प्र.पु. एक.) |
नान्तो | न (अव्ययः)–अन्त (१.१) |
न | न (अव्ययः) |
चादिर्न | च (अव्ययः)–आदि (१.१)–न (अव्ययः) |
च | च (अव्ययः) |
संप्रतिष्ठा | सम्प्रतिष्ठा (१.१) |
अश्वत्थमेनं | अश्वत्थ (२.१)–एनद् (२.१) |
सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण | सु (अव्ययः)–विरूढ (√वि-रुह् + क्त)–मूल (२.१)–असङ्ग–शस्त्र (३.१) |
दृढेन | दृढ (३.१) |
छित्त्वा | छित्त्वा (√छिद् + क्त्वा) |
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ |
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न | रू | प | म | स्ये | ह | त | थो | प | ल | भ्य | ते |
ना | न्तो | न | चा | दि | र्न | च | सं | प्र | ति | ष्ठा |
अ | श्व | त्थ | मे | नं | सु | वि | रू | ढ | मू | ल |
म | स | ङ्ग | श | स्त्रे | ण | दृ | ढे | न | छि | त्त्वा |
त | त | ज | ग | ग |