Summary
Those who are rid of pride and delusion; have put down the evils of attachment; remain constantly in their own nature of the Self; have their desires completely departed; and are fully liberated from the pairs known as pleasures and pains-these undeluded men go to that changeless Abode.
पदच्छेदः
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निर्मानमोहा | निर्मान–मोह (१.३) |
जितसङ्गदोषा | जित (√जि + क्त)–सङ्ग–दोष (१.३) |
अध्यात्मनित्या | अध्यात्म–नित्य (१.३) |
विनिवृत्तकामाः | विनिवृत्त (√विनि-वृत् + क्त)–काम (१.३) |
द्वंद्वैर्विमुक्ताः | द्वंद्व (३.३)–विमुक्त (√वि-मुच् + क्त, १.३) |
सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः | सुख–दुःख–संज्ञा (३.३)–गच्छन्ति (√गम् लट् प्र.पु. बहु.)–अमूढ (१.३) |
पदमव्ययं | पद (२.१)–अव्यय (२.१) |
तत् | तद् (२.१) |
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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नि | र्मा | न | मो | हा | जि | त | स | ङ्ग | दो | षा |
अ | ध्या | त्म | नि | त्या | वि | नि | वृ | त्त | का | माः |
द्वं | द्वै | र्वि | मु | क्ताः | सु | ख | दुः | ख | सं | ज्ञै |
र्ग | च्छ | न्त्य | मू | ढाः | प | द | म | व्य | यं | तत् |
त | त | ज | ग | ग |