Summary
A portion just of My own Self, having become the eternal individual Soul in the world of the living ones, draws [into service] the sense organs, of which the sixth is the mind, and which rest in the Prakrti.
पदच्छेदः
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ममैवांशो | मद् (६.१)–एव (अव्ययः)–अंश (१.१) |
जीवलोके | जीव–लोक (७.१) |
जीवभूतः | जीव–भूत (√भू + क्त, १.१) |
सनातनः | सनातन (१.१) |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि | मनस्–षष्ठ (२.३)–इन्द्रिय (२.३) |
प्रकृतिस्थानि | प्रकृति–स्थ (२.३) |
कर्षति | कर्षति (√कृष् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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म | मै | वां | शो | जी | व | लो | के |
जी | व | भू | तः | स | ना | त | नः |
म | नः | ष | ष्ठा | नी | न्द्रि | या | णि |
प्र | कृ | ति | स्था | नि | क | र्ष | ति |