Summary
That, whence the activities of the beings arise; by which this universe is pervaded-worshipping That by one's own prescribed action, a man attains success.
पदच्छेदः
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यस्यान्तःस्थानि | यद् (६.१)–अन्तर् (अव्ययः)–स्थ (१.३) |
भूतानि | भूत (१.३) |
येन | यद् (३.१) |
सर्वमिदं | सर्व (१.१)–इदम् (१.१) |
ततम् | तत (√तन् + क्त, १.१) |
स्वकर्मनिरतः | स्व–कर्मन्–निरत (√नि-रम् + क्त, १.१) |
सिद्धिं | सिद्धि (२.१) |
यथा | यथा (अव्ययः) |
विन्दति | विन्दति (√विद् लट् प्र.पु. एक.) |
तच्छृणु | तद् (२.१)–शृणु (√श्रु लोट् म.पु. ) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | तः | प्र | वृ | त्ति | र्भू | ता | नां |
ये | न | स | र्व | मि | दं | त | तम् |
स्व | क | र्म | णा | त | म | भ्य | र्च्य |
सि | द्धिं | वि | न्द | ति | मा | न | वः |