Summary
Just as rejecting the tattered garments, a man takes other new ones, in the same way, rejecting the decayed bodies, the embodied (Self) rightly proceeds to other new ones.
पदच्छेदः
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वासांसि | वासस् (२.३) |
जीर्णानि | जीर्ण (२.३) |
यथा | यथा (अव्ययः) |
विहाय | विहाय (√वि-हा + ल्यप्) |
नवानि | नव (२.३) |
गृह्णाति | गृह्णाति (√ग्रह् लट् प्र.पु. एक.) |
नरो | नर (१.१) |
ऽपराणि | अपर (२.३) |
तथा | तथा (अव्ययः) |
शरीराणि | शरीर (२.३) |
विहाय | विहाय (√वि-हा + ल्यप्) |
जीर्णान्यन्यानि | जीर्ण (२.३)–अन्य (२.३) |
संयाति | संयाति (√सम्-या लट् प्र.पु. एक.) |
नवानि | नव (२.३) |
देही | देहिन् (१.१) |
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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वा | सां | सि | जी | र्णा | नि | य | था | वि | हा | य |
न | वा | नि | गृ | ह्णा | ति | न | रो | ऽप | रा | णि |
त | था | श | री | रा | णि | वि | हा | य | जी | र्णा |
न्य | न्या | नि | सं | या | ति | न | वा | नि | दे | ही |