Summary
It is good indeed even to go about begging in this world without killing the elders of great dignity; but with greed for wealth, I would not enjoy, by killing my elders, the blood-stained objects of pleasures.
पदच्छेदः
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गुरूनहत्वा | गुरु (२.३)–अ (अव्ययः)–हत्वा (√हन् + क्त्वा) |
हि | हि (अव्ययः) |
महानुभावाञ्श्रेयो | महत्–अनुभाव (२.३)–श्रेयस् (१.१) |
भोक्तुं | भोक्तुम् (√भुज् + तुमुन्) |
भैक्षमपीह | भैक्ष (२.१)–अपि (अव्ययः)–इह (अव्ययः) |
लोके | लोक (७.१) |
हत्वार्थकामांस्तु | हत्वा (√हन् + क्त्वा)–अर्थ–काम (२.३)–तु (अव्ययः) |
गुरूनिहैव | गुरु (२.३)–इह (अव्ययः)–एव (अव्ययः) |
भुञ्जीय | भुञ्जीय (√भुज् विधिलिङ् उ.पु. ) |
भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् | भोग (२.३)–रुधिर–प्रदिग्ध (√प्र-दिह् + क्त, २.३) |
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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गु | रू | न | ह | त्वा | हि | म | हा | नु | भा | वा |
ञ्श्रे | यो | भो | क्तुं | भै | क्ष | म | पी | ह | लो | के |
ह | त्वा | र्थ | का | मां | स्तु | गु | रू | नि | है | व |
भु | ञ्जी | य | भो | गा | न्रु | धि | र | प्र | दि | ग्धान् |