Summary
With my very nature, overpowered by the taint of pity, and with my mind, utterly confused as to the right action [at the present juncture], I ask you: Tell me definitely what would be good [to me]; I am your pupil; please teach me, who am taking refuge in You.
पदच्छेदः
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः | कार्पण्य–दोष–उपहत (√उप-हन् + क्त)–स्वभाव (१.१) |
पृच्छामि | पृच्छामि (√प्रच्छ् लट् उ.पु. ) |
त्वां | त्वद् (२.१) |
धर्मसंमूढचेताः | धर्म–संमूढ (√सम्-मुह् + क्त)–चेतस् (१.१) |
यच्छ्रेयः | यद् (१.१)–श्रेयस् (१.१) |
स्यान्निश्चितं | स्यात् (√अस् विधिलिङ् प्र.पु. एक.)–निश्चितम् (अव्ययः) |
ब्रूहि | ब्रूहि (√ब्रू लोट् म.पु. ) |
तन्मे | तद् (२.१)–मद् (६.१) |
शिष्यस्ते | शिष्य (१.१)–त्वद् (६.१) |
ऽहं | मद् (१.१) |
शाधि | शाधि (√शास् लोट् म.पु. ) |
मां | मद् (२.१) |
त्वां | त्वद् (२.१) |
प्रपन्नम् | प्रपन्न (√प्र-पद् + क्त, २.१) |
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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का | र्प | ण्य | दो | षो | प | ह | त | स्व | भा | वः |
पृ | च्छा | मि | त्वां | ध | र्म | सं | मू | ढ | चे | ताः |
य | च्छ्रे | यः | स्या | न्नि | श्चि | तं | ब्रू | हि | त | न्मे |
शि | ष्य | स्ते | ऽहं | शा | धि | मां | त्वां | प्र | प | न्नम् |