Summary
O son of Prtha ! This is the Brahmanic state; having attained this, one never gets deluded [again]; and even by remaining in this [for a while] one attains at the time of death, the Brahman, the Tranil One.
पदच्छेदः
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एषा | एतद् (१.१) |
ब्राह्मी | ब्राह्म (१.१) |
स्थितिः | स्थिति (१.१) |
पार्थ | पार्थ (८.१) |
नैनां | न (अव्ययः)–एनद् (२.१) |
प्राप्य | प्राप्य (√प्र-आप् + ल्यप्) |
विमुह्यति | विमुह्यति (√वि-मुह् लट् प्र.पु. एक.) |
स्थित्वास्यामन्तकाले | स्थित्वा (√स्था + क्त्वा)–इदम् (७.१)–अन्त–काल (७.१) |
ऽपि | अपि (अव्ययः) |
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति | ब्रह्मन्–निर्वाण (२.१)–ऋच्छति (√ऋछ् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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ए | षा | ब्रा | ह्मी | स्थि | तिः | पा | र्थ |
नै | नां | प्रा | प्य | वि | मु | ह्य | ति |
स्थि | त्वा | स्या | म | न्त | का | ले | ऽपि |
ब्र | ह्म | नि | र्वा | ण | मृ | च्छ | ति |