Summary
The devas, gratified with necessary action will grant you the things sacrificed. [Hence] whosoever enjoys their gifts without offering them to these devas-he is surely a thief.
पदच्छेदः
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इष्टान्भोगान्हि | इष्ट (√इष् + क्त, २.३)–भोग (२.३)–हि (अव्ययः) |
वो | त्वद् (४.३) |
देवा | देव (१.३) |
दास्यन्ते | दास्यन्ते (√दा लृट् प्र.पु. बहु.) |
यज्ञभाविताः | यज्ञ–भावित (√भावय् + क्त, १.३) |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो | तद् (३.३)–दत्त (√दा + क्त, २.३)–अ (अव्ययः)–प्रदाय (√प्र-दा + ल्यप्)–इदम् (४.३) |
यो | यद् (१.१) |
भुङ्क्ते | भुङ्क्ते (√भुज् लट् प्र.पु. एक.) |
स्तेन | स्तेन (१.१) |
एव | एव (अव्ययः) |
सः | तद् (१.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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इ | ष्टा | न्भो | गा | न्हि | वो | दे | वा |
दा | स्य | न्ते | य | ज्ञ | भा | वि | ताः |
तै | र्द | त्ता | न | प्र | दा | यै | भ्यो |
यो | भु | ङ्क्ते | स्ते | न | ए | व | सः |