Summary
The righteous persons, who eat the remnants (objects enjoined) of the actions to be performed necessarily, are freed from all sins. But those who cook, intending their own selves, are sinners and eat sin.
पदच्छेदः
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यज्ञशिष्टाशिनः | यज्ञ–शिष्ट–आशिन् (१.३) |
सन्तो | सत् (१.३) |
मुच्यन्ते | मुच्यन्ते (√मुच् प्र.पु. बहु.) |
सर्वकिल्बिषैः | सर्व–किल्बिष (३.३) |
भुञ्जते | भुञ्जते (√भुज् लट् प्र.पु. बहु.) |
ते | तद् (१.३) |
त्वघं | तु (अव्ययः)–अघ (२.१) |
पापा | पाप (१.३) |
ये | यद् (१.३) |
पचन्त्यात्मकारणात् | पचन्ति (√पच् लट् प्र.पु. बहु.)–आत्मन्–कारण (५.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | ज्ञ | शि | ष्टा | शि | नः | स | न्तो |
मु | च्य | न्ते | स | र्व | कि | ल्बि | षैः |
भु | ञ्ज | ते | ते | त्व | घं | पा | पा |
ये | प | च | न्त्या | त्म | का | र | णात् |