Summary
But the man, who simply rejoices in the Self; and who is satisfied in the Self; and who delights in the Self alone-there exists no action for him to be performed.
पदच्छेदः
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यस्त्वात्मरतिरेव | यद् (१.१)–तु (अव्ययः)–आत्मन्–रति (१.१)–एव (अव्ययः) |
स्यादात्मतृप्तश्च | स्यात् (√अस् विधिलिङ् प्र.पु. एक.)–आत्मन्–तृप्त (√तृप् + क्त, १.१)–च (अव्ययः) |
मानवः | मानव (१.१) |
आत्मन्येव | आत्मन् (७.१)–एव (अव्ययः) |
च | च (अव्ययः) |
संतुष्टस्तस्य | संतुष्ट (√सम्-तुष् + क्त, १.१)–तद् (६.१) |
कार्यं | कार्य (१.१) |
न | न (अव्ययः) |
विद्यते | विद्यते (√विद् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | स्त्वा | त्म | र | ति | रे | व | स्या |
दा | त्म | तृ | प्त | श्च | मा | न | वः |
आ | त्म | न्ये | व | च | सं | तु | ष्ट |
स्त | स्य | का | र्यं | न | वि | द्य | ते |