Summary
But those who, finding fault, do not follow this doctrine of Mine-be sure that these men to be highly deluded in all [branches of] knowledge and to be lost and brainless.
पदच्छेदः
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ये | यद् (१.३) |
त्वेतदभ्यसूयन्तो | तु (अव्ययः)–एतद् (२.१)–अभ्यसूयत् (√अभ्यसूय् + शतृ, १.३) |
नानुतिष्ठन्ति | न (अव्ययः)–अनुतिष्ठन्ति (√अनु-स्था लट् प्र.पु. बहु.) |
मे | मद् (६.१) |
मतम् | मत (२.१) |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि | सर्व–ज्ञान–विमूढ (√वि-मुह् + क्त, २.३)–तद् (२.३)–विद्धि (√विद् लोट् म.पु. ) |
नष्टानचेतसः | नष्ट (√नश् + क्त, २.३)–अचेतस् (२.३) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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ये | त्वे | त | द | भ्य | सू | य | न्तो |
ना | नु | ति | ष्ठ | न्ति | मे | म | तम् |
स | र्व | ज्ञा | न | वि | मू | ढां | स्ता |
न्वि | द्धि | न | ष्टा | न | चे | त | सः |