Summary
Therefore, O best among the Bharatas, by controlling completely the sense-organs in the beginning [itself], you must avoid this sinful one, destroying the knowledge-action.
पदच्छेदः
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यस्त्विन्द्रियाणि | यद् (१.१)–तु (अव्ययः)–इन्द्रिय (२.३) |
मनसा | मनस् (३.१) |
नियम्यारभते | नियम्य (√नि-यम् + ल्यप्)–आरभते (√आ-रभ् लट् प्र.पु. एक.) |
ऽर्जुन | अर्जुन (८.१) |
पाप्मानं | पाप्मन् (२.१) |
प्रजहिह्येनं | प्रजहिहि (√प्र-हा लोट् म.पु. )–एनद् (२.१) |
ज्ञानविज्ञाननाशनम् | ज्ञान–विज्ञान–नाशन (२.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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त | स्मा | त्त्व | मि | न्द्रि | या | ण्या | दौ |
नि | य | म्य | भ | र | त | र्ष | भ |
पा | प्मा | नं | प्र | ज | हि | ह्ये | नं |
ज्ञा | न | वि | ज्ञा | न | ना | श | नम् |