Summary
Controlling organs of actions, whosoever sits with his mind, pondering over the sense objects-that person is a man of deluded soul and [he] is called a man of deluded action.
पदच्छेदः
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कर्मेन्द्रियाणि | कर्मेन्द्रिय (२.३) |
संयम्य | संयम्य (√सम्-यम् + ल्यप्) |
य | यद् (१.१) |
आस्ते | आस्ते (√आस् लट् प्र.पु. एक.) |
मनसा | मनस् (३.१) |
स्मरन् | स्मरत् (√स्मृ + शतृ, १.१) |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा | इन्द्रिय–अर्थ (२.३)–विमूढ (√वि-मुह् + क्त)–आत्मन् (१.१) |
मिथ्याचारः | मिथ्या (अव्ययः)–आचार (१.१) |
स | तद् (१.१) |
उच्यते | उच्यते (√वच् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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क | र्मे | न्द्रि | या | णि | सं | य | म्य |
य | आ | स्ते | म | न | सा | स्म | रन् |
इ | न्द्रि | या | र्था | न्वि | मू | ढा | त्मा |
मि | थ्या | चा | रः | स | उ | च्य | ते |