Summary
The enjoyments that are born of contacts [with objects] are indeed nothing but sources of misery and have beginning and end. [Hence], an intelligent man does not get delighted in them, O son of Kunti !
पदच्छेदः
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बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा | बाह्य–स्पर्श (७.३)–असक्त–आत्मन् (१.१) |
विन्दत्यात्मनि | विन्दति (√विद् लट् प्र.पु. एक.)–आत्मन् (७.१) |
यत्सुखम् | यद् (२.१)–सुख (२.१) |
स | तद् (१.१) |
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा | ब्रह्मन्–योग–युक्त (√युज् + क्त)–आत्मन् (१.१) |
सुखमक्षयमश्नुते | सुख (२.१)–अक्षय (२.१)–अश्नुते (√अश् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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बा | ह्य | स्प | र्शे | ष्व | स | क्ता | त्मा |
वि | न्द | त्या | त्म | नि | य | त्सु | खम् |
स | ब्र | ह्म | यो | ग | यु | क्ता | त्मा |
सु | ख | म | क्ष | य | म | श्नु | ते |