Summary
The sage, who has controlled his sense-organs, mind and intellect; whose chief aim is emancipation; and from whom desire, fear and wrath have departed-he remains just free always.
पदच्छेदः
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स्पर्शान्कृत्वा | स्पर्श (२.३)–कृत्वा (√कृ + क्त्वा) |
बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे | बहिस् (अव्ययः)–बाह्य (२.३)–चक्षुस् (२.१)–च (अव्ययः)–एव (अव्ययः)–अन्तर (७.१) |
भ्रुवोः | भ्रू (६.२) |
प्राणापानौ | प्राण–अपान (२.२) |
समौ | सम (२.२) |
कृत्वा | कृत्वा (√कृ + क्त्वा) |
नासाभ्यन्तरचारिणौ | नासा–अभ्यन्तर–चारिन् (२.२) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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स्प | र्शा | न्कृ | त्वा | ब | हि | र्बा | ह्यां |
श्च | क्षु | श्चै | वा | न्त | रे | भ्रु | वोः |
प्रा | णा | पा | नौ | स | मौ | कृ | त्वा |
ना | सा | भ्य | न्त | र | चा | रि | णौ |