Summary
The childish, and not the wise, proclaim the paths of knowledge and the Yoga as different. He, who has properly resorted to even one [of these two], gets the fruit of both.
पदच्छेदः
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सांख्ययोगौ | सांख्य–योग (२.२) |
पृथग्बालाः | पृथक् (अव्ययः)–बाल (१.३) |
प्रवदन्ति | प्रवदन्ति (√प्र-वद् लट् प्र.पु. बहु.) |
न | न (अव्ययः) |
पण्डिताः | पण्डित (१.३) |
एकमप्यास्थितः | एक (२.१)–अपि (अव्ययः)–आस्थित (√आ-स्था + क्त, १.१) |
सम्यगुभयोर्विन्दते | सम्यक् (अव्ययः)–उभय (६.२)–विन्दते (√विद् लट् प्र.पु. एक.) |
फलम् | फल (२.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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सां | ख्य | यो | गौ | पृ | थ | ग्बा | लाः |
प्र | व | द | न्ति | न | प | ण्डि | ताः |
ए | क | म | प्या | स्थि | तः | स | म्य |
गु | भ | यो | र्वि | न्द | ते | फ | लम् |