Summary
Very slowly remain iet, keeping the mind well established in the Self by means of the intellect held in steadiness; and lest him not think of anything (object).
पदच्छेदः
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शनैः | शनैस् (अव्ययः) |
शनैरुपरमेद्बुद्ध्या | शनैस् (अव्ययः)–उपरमेत् (√उप-रम् विधिलिङ् प्र.पु. एक.)–बुद्धि (३.१) |
धृतिगृहीतया | धृति–गृहीत (√ग्रह् + क्त, ३.१) |
आत्मसंस्थं | आत्मन्–संस्थ (२.१) |
मनः | मनस् (२.१) |
कृत्वा | कृत्वा (√कृ + क्त्वा) |
न | न (अव्ययः) |
किंचिदपि | कश्चित् (२.१)–अपि (अव्ययः) |
चिन्तयेत् | चिन्तयेत् (√चिन्तय् विधिलिङ् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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श | नैः | श | नै | रु | प | र | मे |
द्बु | द्ध्या | धृ | ति | गृ | ही | त | या |
आ | त्म | सं | स्थं | म | नः | कृ | त्वा |
न | किं | चि | द | पि | चि | न्त | येत् |