Summary
Yoking his self (mind) incessantly in this manner, My devotee, with mind not attached to anything else, realises peace which culminates in the nirvana and is in the form of ending in Me.
पदच्छेदः
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युञ्जन्नेवं | युञ्जत् (√युज् + शतृ, १.१)–एवम् (अव्ययः) |
सदात्मानं | सदा (अव्ययः)–आत्मन् (२.१) |
योगी | योगिन् (१.१) |
नियतमानसः | नियत (√नि-यम् + क्त)–मानस (१.१) |
सुखेन | सुखेन (अव्ययः) |
ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं | ब्रह्मन्–संस्पर्श (२.१)–अत्यन्त (२.१) |
सुखमश्नुते | सुख (२.१)–अश्नुते (√अश् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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यु | ञ्ज | न्ने | वं | स | दा | त्मा | नं |
यो | गी | वि | ग | त | क | ल्म | षः |
सु | खे | न | ब्र | ह्म | सं | स्प | र्श |
म | त्य | न्तं | सु | ख | म | श्नु | ते |