Summary
He, who, established firmly in the oneness (of Me), experiences Me immanent in all beings-that man of Yoga, is never stained, in whatever stage he may be.
पदच्छेदः
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सर्वभूतस्थितं | सर्व–भूत–स्थित (√स्था + क्त, २.१) |
यो | यद् (१.१) |
मां | मद् (२.१) |
भजत्येकत्वमास्थितः | भजति (√भज् लट् प्र.पु. एक.)–एक–त्व (२.१)–आस्थित (√आ-स्था + क्त, १.१) |
सर्वथा | सर्वथा (अव्ययः) |
वर्तमानो | वर्तमान (√वृत् + शानच्, १.१) |
ऽपि | अपि (अव्ययः) |
स | तद् (१.१) |
योगी | योगिन् (१.१) |
मयि | मद् (७.१) |
वर्तते | वर्तते (√वृत् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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स | र्व | भू | त | स्थि | तं | यो | मां |
भ | ज | त्ये | क | त्व | मा | स्थि | तः |
स | र्व | था | व | र्त | मा | नो | ऽपि |
स | यो | गी | म | यि | व | र्त | ते |