Summary
The Bhagavat said O dear Partha ! Neither in this [world], nor in the other is there a destruction for him. Certainly, no performer of an auspicious act does ever come to a grievous state.
पदच्छेदः
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पार्थ | पार्थ (८.१) |
नैवेह | न (अव्ययः)–एव (अव्ययः)–इह (अव्ययः) |
नामुत्र | न (अव्ययः)–अमुत्र (अव्ययः) |
विनाशस्तस्य | विनाश (१.१)–तद् (६.१) |
विद्यते | विद्यते (√विद् प्र.पु. एक.) |
न | न (अव्ययः) |
हि | हि (अव्ययः) |
कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं | कल्याण–कृत् (१.१)–कश्चित् (१.१)–दुर्गति (२.१) |
तात | तात (८.१) |
गच्छति | गच्छति (√गम् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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पा | र्थ | नै | वे | ह | ना | मु | त्र |
वि | ना | श | स्त | स्य | वि | द्य | ते |
न | हि | क | ल्या | ण | कृ | त्क | श्चि |
द्दु | र्ग | तिं | ता | त | ग | च्छ | ति |