Summary
Having attained the worlds of performers of pious acts, [and] having resided there for years of Sasvata, the fallen-from-Yoga is born [again] in the house of the pure persons, who are rich.
पदच्छेदः
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प्राप्य | प्राप्य (√प्र-आप् + ल्यप्) |
पुण्यकृतांल्लोकानुषित्वा | पुण्य–कृत् (६.३)–लोक (२.३)–उषित्वा (√वस् + क्त्वा) |
शाश्वतीः | शाश्वत (२.३) |
समाः | समा (२.३) |
शुचीनां | शुचि (६.३) |
श्रीमतां | श्रीमत् (६.३) |
गेहे | गेह (७.१) |
योगभ्रष्टो | योग–भ्रष्ट (√भ्रंश् + क्त, १.१) |
ऽभिजायते | अभिजायते (√अभि-जन् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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प्रा | प्य | पु | ण्य | कृ | ता | ल्लो | का |
नु | षि | त्वा | शा | श्व | तीः | स | माः |
शु | ची | नां | श्री | म | तां | गे | हे |
यो | ग | भ्र | ष्टो | ऽभि | जा | य | ते |