Summary
The Supreme Soul. O son of Prtha, is attainable through devotion that admits no other things; having attained Which Soul, the men of Yoga do not get birth again; within Which exist the beings; and in Which everything is well established, O Arjuna !
पदच्छेदः
Click to Toggle
पुरुषः | पुरुष (१.१) |
स | तद् (१.१) |
परः | पर (१.१) |
पार्थ | पार्थ (८.१) |
भक्त्या | भक्ति (३.१) |
लभ्यस्त्वनन्यया | लभ्य (√लभ् + कृत्, १.१)–तु (अव्ययः)–अन् (अव्ययः)–अन्य (३.१) |
यस्यान्तःस्थानि | यद् (६.१)–अन्तर् (अव्ययः)–स्थ (१.३) |
भूतानि | भूत (१.३) |
येन | यद् (३.१) |
सर्वमिदं | सर्व (१.१)–इदम् (१.१) |
ततम् | तत (√तन् + क्त, १.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
---|
पु | रु | षः | स | प | रः | पा | र्थ |
भ | क्त्या | ल | भ्य | स्त्व | न | न्य | या |
य | स्या | न्तः | स्था | नि | भू | ता | नि |
ये | न | स | र्व | मि | दं | त | तम् |