Summary
Having understood all this, the Yogin goes beyond whatever fruit of merit is ordained [in the scriptures] in case the Vedas [are recited], the sacrifices [performed], the austerities [observed], and also gifts [donated]; and he goes to the Supreme Primeval Abode.
पदच्छेदः
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वेदेषु | वेद (७.३) |
यज्ञेषु | यज्ञ (७.३) |
तपःसु | तपस् (७.३) |
चैव | च (अव्ययः)–एव (अव्ययः) |
दानेषु | दान (७.३) |
यत्पुण्यफलं | यद् (१.१)–पुण्य–फल (१.१) |
प्रदिष्टम् | प्रदिष्ट (√प्र-दिश् + क्त, १.१) |
अत्येति | अत्येति (√अति-इ लट् प्र.पु. एक.) |
तत्सर्वमिदं | तद् (२.१)–सर्व (२.१)–इदम् (२.१) |
विदित्वा | विदित्वा (√विद् + क्त्वा) |
योगी | योगिन् (१.१) |
परं | पर (२.१) |
स्थानमुपैति | स्थान (२.१)–उपैति (√उप-इ लट् प्र.पु. एक.) |
चाद्यम् | च (अव्ययः)–आद्य (२.१) |
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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वे | दे | षु | य | ज्ञे | षु | त | पः | सु | चै | व |
दा | ने | षु | य | त्पु | ण्य | फ | लं | प्र | दि | ष्टम् |
अ | त्ये | ति | त | त्स | र्व | मि | दं | वि | दि | त्वा |
यो | गी | प | रं | स्था | न | मु | पै | ति | चा | द्यम् |
त | त | ज | ग | ग |