Summary
O son of Kunti ! On account of Me, Who remain (only) as an observer and as prime cause, the nature [of Mine] gives birth to [both] the moving and unmoving; hence this world moves in a circle.
पदच्छेदः
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मयाध्यक्षेण | मद् (३.१)–अध्यक्ष (३.१) |
प्रकृतिः | प्रकृति (१.१) |
सूयते | सूयते (√सू प्र.पु. एक.) |
सचराचरम् | सचराचर (१.१) |
हेतुनानेन | हेतु (३.१)–इदम् (३.१) |
कौन्तेय | कौन्तेय (८.१) |
जगद्विपरिवर्तते | जगन्त् (१.१)–विपरिवर्तते (√विपरि-वृत् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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म | या | ध्य | क्षे | ण | प्र | कृ | तिः |
सू | य | ते | स | च | रा | च | रम् |
हे | तु | ना | ने | न | कौ | न्ते | य |
ज | ग | द्वि | प | रि | व | र्त | ते |